हमेशा पूछे जानेवाले प्रश्न (Frequently Asked Questions)

शेअर्स ऑटो पे - ईन सुविधा (Shares Auto Pay-In Facility)

आप अपने स्टॉक ब्रोकर्स के पास भी डिमेट खाता खोल सकते है। कई लोगों को यह डर होता है कि उनके शेअर्स का दुरूपयोग किया जाएगा। पर अब पहले जैसी स्थिति नहीं है और सिस्टम भी पारदर्शक बन गया है। इसलिए यह डर की कोई जरूरत नहीं। 

 

अब सेवी बहुत ही सचेत है। इसलिए आपके शेअर्स का दुरूपयोग होगा इसकी कोई गुंजाईश नहीं होती।

 

दुसरी बात यह है कि आजकल एक सुविधा है जिसे ऑटो पे-ईन कहा जाता है वह आपको अगर आपका डिमेट खाता आपके ब्रोकर के पास हो तभी मिल सकती है।

 

साधारण रूप से जब आप शेअर्स बेचते है तब आपके डिमेट के टान्झाक्शन स्लीप के बुक में जरूरी जानकारी भरकर उस पर मोहर लगानी पड़ती है। इसके बाद ही आपने बेचे हुए शेअर्स आपके डिमेट खाते में से बाहर आ सकते है। 

 

पर ऑटो पे-ईन सुविधा में आप जब शेअर्स बेचते है, उतनी ही संख्या में शेअर्स आपके डिमेट या पुल खाते में से सिधे बाज़ार में आ जाते है। 

आजकल अपना जीवन भागदौड भरा है। इसलिए यह सुविधा अपने लिए लाभदायक होती है। एक तो आप शेअर्स ट्रान्सफर करने की चिंता से मुक्त होते है और कुछ कारण वश किसी समय शेअर्स ट्रान्सफर नहीं हुए तो ऑक्शन की संभावना से भी हमेशा के लिए मुक्ती मिलती है। 

 

इसलिए मेरी यह सलाह है कि इस सुविधा का फायदा लेकर तनावमुक्त होने में ही समझदारी है।

 

 रोलीग सेटलमेन्ट और सेटलमेन्ट सायकल (Rolling Settlement and Settlement Cycle)

आजकल बाज़ार में 'रोलींग सेटलमेन्ट' का उपयोग किया जाता है। जिसमें सेटलमेन्ट 'टी+2(T2)' योजना का उपयोग किया जाता है। 

यहाँ पर 'टी T' याने पहले वाला दिन होता जिस दिन हम शेयर खरीदते  है। 'टी+1(T+1)' याने दुसरा दिन होता

है और 'टी-2(T+2)' याने तीसरा दिन होता है।

टी- पहला दिन (T = Trading Day):

इस दिन आप शेअर्स खरीदते है या बेचते है। जिनकी डिलीवरी लेनी या देनी होती है।

टी-1 - दुसरा दिन (T+1 = Second Day): इस दिन डिलीवरी का कन्फर्मेशन होता है। याने की पहले दिन हुए ट्रेडिंग का कन्फर्मेशन होता है। यह काम कस्टोडीयन करते है।

टी +2 = तीसरा दिन (T+2 = Third Day):

इस दिन कस्टोडीयन की गिनती के अनुसार शेअर्स और रकम का पे-ईन पे-आऊट होता है। पहले पे-ईन होता है। जिसमें आपके स्टॉक ब्रोकर्स के साथ हुए ट्रेडिंग के अनुसार बाज़ार में आते है और रकम का भुगतान किया जाता है। इसके बाद पे-आऊट होता है। जिसमें बाज़ार के हर  स्टॉक ब्रोकर्स को शेअर्स और रकम का भुगतान किया जाता है। 



 

नोट (Note)

रोलोग सेटलमेन्ट होने के बाद शेअर्स खरीदे हो तो उनकी डिलीवरी लेनी  पड़ती है या फिर शाम को बेचकर उनका ट्रेडिंग करना पड़ता है। पर पहले  जैसे सप्ताह तक रुकना नहीं पड़ता है।

अब लोगों को  स्वयं के शेयर्स बेचने  के बाद उन्हें तरंत पैसे मिल जाते है। 

इससे  पहले आपको  सप्ताह तक या फिर दस दिनों तक उसकी रह देखनी पड़ती थी।

 

हमेशा पूछे जानेवाले प्रश्न (Frequently Asked Questions)

शेअर बाज़ार में निवेश की शुरूआत कैसे करनी चाहिए?

 

सबसे पहले अपने ब्रोकर का चयन कीजिए। उस ब्रोकर का सेबी में रजिस्ट्रेशन होना चाहिए।

साथ ही ब्रोकर और क्लायन्ट अग्रीमेन्ट पर हस्ताक्षर करके जरूरी कार्यवाही पूरी  कीजिए। साधारण रूप से तीन या चार दिनों में आपको क्लायन्ट कोड मिलता है, जो भविष्य में होने वाले पत्र व्यवहार और आपको मिलने वाले कॉन्ट्रैक्ट नोट में दर्शाया जाता है। 

आपको डिमेट अकाऊन्ट भी खोलना पड़ता है जो आपके ब्रोकर के पास या मान्यता प्राप्त बैंक  में खोला जा सकता है।

 एक बार यह संपूर्ण कार्यवाही पूर्ण होने के बाद शेअर्स के लेन-देन के लिए आपको अपने ब्रोकर को फोन करना पड़ता है या फिर आप उसके ऑफिस में जाकर टर्मिनल के सामने बैठकर ट्रेडिंग कर सकते है।ये सब प्रोसेस पुरानी हो चुकी है आज आप ऑनलाईन भी ऑर्डर प्लेस कर सकते है। और पूरा लेनदेन कर सकते है मतलब हम कह सकते है की आज ट्रेडिंग सिस्टम डिजिटल हो चूका है। 

 

ब्रोकर की जरूरत किसलिए होती है?

सेबी के रेग्यूलेशन के अनुसार रजिस्टर्ड ब्रोकर्स  ही काम कर सकते है। इसलिए रजिस्ट्रेशन किए हुए ब्रोकर के मदद से ही ट्रेडिंग करना संभव होता है।

 

ईलेक्ट्रॉनिक या डिजिटल ट्रेडिंग क्या होता है?

 ईलेक्ट्रॉनिक ट्रेडिंग की शुरूआत के बाद अब ब्रोकर को ट्रेडिंग फ्लोर पर या  ऑफिस और फ़ोन कर  ट्रेडिंग नहीं करना पड़ता। अब कंप्यूटर पर ट्रेडिंग किया जाता है। जो एक्सचेन्ज के साथ वी.सेट द्वारा जुड़ा होता है। 

 

अब इंटरनेट के माध्यम से भी ट्रेडिंग करने की सुविधा उपलब्ध है। इसलिए हम घर बैठे बैठे या स्वयं के ऑफिस से या खुद के कंप्यूटर की मदद से ट्रेडिंग कर सकते हैं। इसका मुख्य नियम यह है कि जब आपको  किसी निश्चित भाव से तुरंत ट्रेडिंग करना हो तो इसके लिए ब्रोकर को फोन करना नहीं पड़ता और इसमें  होने वाले  विलम्ब के  कारण भाव बदलने की संभावना नहीं होती। आप तुरंत चाहे उस भाव पर ट्रेडिंग कर सकते है। 




 

कॉन्टॅक्ट नोट क्या होता है?

 

आपके द्वारा  किए  गए ट्रेडिंग का भाव, समय, संख्या और दलाली आदि को दर्शाने वाला नोट 'कॉन्टॅक्ट नोट' सभी ब्रोकर्स के पास मिलता है। कॉन्टॅक्ट नोट निश्चत किए फॉर्मेट में निवेशक को दिया जाता है। जो  निवेशक और ब्रोकर इनके बिच हुए ट्रेडिंग का कानूनन प्रमाण होता है कॉन्ट्रॅक्ट नोट की दो प्रतीयाँ निकाली जाती है जिसमें से एक ब्रोकर दुसरी निवेशक के पास होती है। यह 'कॉन्ट्रॅक्ट नोट' आपको 24 घंटे अंदर मिल जाती है।

 

बुक - क्लोजर और रेकॉर्ड डेट क्या है ?

बुक - क्लोजर : द्वारा किसी भी दिन कंपनी में कितने निवेशकों का रजिस्ट्रेशन हुआ है यह देखा जाता है। 

रेकॉर्ड डेट : डिविडन्ड, बोनस, राईट आदि जैसे लाभ ऐसे निवेशकों को मिलता है। जिनका नाम इस तारीख से पहले लिखा होता है। उसका ही नाम रिकॉर्ड डेट' है। निवेशक किसी भी शेअर्स कम-बोनस. कम डिविडन्ड, कम-राईट को खरीद के एक नए निवेशक की तरह उसका फायदा होने की आशा करते है। इसके लिए शेअर्स उनके नाम पर टान्सफर होना जरूरी होता है। अगर ऐसा नहीं हुआ तो उनको यह फायदा नहीं मिलता। इस तरह से शेअर्स की खरीदी करने वाले घाटे में ट्रेडिंग करते है। इसलिए आवश्यक है कि आप जो शेअर्स कम-बोनस जैसे लाभ के साथ खरीदके समय के अनुसार उनके बुक क्लोजर से पहले  स्वयं के नाम पर कर लेने चाहिए। यह देखना भी आवश्यक है जो भाव दिया था उस भाव की गिनती बाद में होती है।  उस से पहले नहीं होती है। 

रेकॉर्ड डेट और बुक क्लोजर डेट इन दोनों में क्या फर्क होता है ?

रेकॉर्ड डेट के विषय में कंपनी स्वयं का रजिस्टर बंद नहीं करती। यह तारीख कंपनी के कितने लोग किसी भी अधिकार के दावेदार है यह जान लेनी की अंतिम तारीख होती है। बुक क्लोज के विषय में जो शेअर्स बाज़ार में नहीं बेचे जा सकते उनके ट्रान्सफर डीड पर बुकक्लोजर के पहले की तारीख होती है।

 

नो डिलीवरी पिरीयड क्या होता है?

जब कोई कंपनी बुक क्लोजर का विज्ञापन करती है तब एक्सचेन्ज उसके लिए नो-डिलीवरी पिरीयड निश्चित करता है। इस समय के दरम्यान सिर्फ ट्रेडिंग की अनुमती दी जाती है। साथ ही इस ट्रेड का सेटलमेन्ट नोडिलीवरी का समय पूरा होने के बाद ही होता है। इस तरह से ऐसा होता है कि वहा पर उस कंपनी ने प्रसिद्ध किए फायदे के हकदार हो तो उन्हे अलग निकाला जा सकता है।

एक्स-डिविडन्ड क्या होता है?

किसी कंपनी ने डिविडन्ड इशू  करने के बाद वह 'एक्स-डिविडन्ड'

कहलाता है। इसका अर्थ ऐसा होता है कि अब उन शेअर्स का ‘डिविडन्ड' देने के बाद का भाव शुरू है। ऐसा होने से शेअर्स खरीदनेवाले को इस से पहले दिए गए डिविडन्ड का लाभ नहीं मिलता।

एक्स-डेट क्या होती है?

नो-डिलीवरी के पहले दिन को एक्स-डेट कहा जाता है। जो कुछ बोनस,

राईट, डिविडन्ड जैसे विज्ञापन कंपनी द्वारा किया जाता है जिसके लिए बुक क्लोजर और रेकॉर्ड डेट निश्चित की गयी है। तो फिर जो कुछ शेअर्स इस तारीख को या इसके बाद की तारीख को खरीदते है उनको  इसका फायदा मिलने के हकदार नहीं होते।


 

बोनस क्या होता है?

 

जब आप निवेश करते हैं तभी आपके पूजी  में बृद्धि होने की गिनती नहीं की जाती। पर कंपनी के सभी उधारी का भुगतान सर प्लस बाकी होता है उसका हिस्सा मिलता है ऐसा भी हो सकते है पर इस सरप्लस का ठिक तरह से वितरण सौभाग्य से आता है। ऐसा नजर आता है। इसके बदले वह रिजर्व या सरप्लस खाते में जमा किया जाता है।  जब यह रकम बहुत  ही बड़ी हो जाती है तब कंपनी ऐसे रकम को रिजर्व खाते  में से एक एंट्री  द्वारा शेअर कॅपिटल खाते में जमा कर सकती है। इस तरह से बाजार में आऊटस्टँडींग शेअर्स को बढ़ाया जा सकता  है और  हर एक निवेशक को बोनस शेअर्स दिए जा सकते है जो एक निर्धारित बोनॉस रेश्यो के अनुसार दिए जाते हैं। इसके ईश्यू को बोनस जाता है। अगर बोनस रेश्यो 1:2 होगा तो उसका अर्थ ऐसा : प्रत्येक 2 शेअर्स के पिछे शेअर धारक को १ शेअर मिलता है।  इसलिए शियर  धारक के पास पहले के २ शेअर्स हो तो अब उनके पास कुल मिलाकर 3 शेअर्स होते है।

स्प्लीट क्या होता है?

यह एक ऐसी बुक एन्ट्री है जिसमें शेअर्स के फेसव्हॅल्यू के बदले आऊटस्टँडिंग शेअर्स में बढ़ोतरी की जाती है। अगर कंपनी ने टू-वे स्लीट किया तो उसका अर्थ यह होता है कि रू.10 की फेसव्हॅल्य के शेअर्स रू. 5 की फेसव्हॅल्यू वाले बन जाते है और जिनके पास १ शेअर होता है अब उनके पास 2 शेअर्स होते है।

             बायबॅक क्या होता है?

नाम दर्शाता है उस तरह से यह एक विकल्प है जिस से कंपनी स्वयं के शेअर्स निवेशक के पास से फिर से खरीदती है। यह कार्य वह अलग अलग प्रकार से कर सकती है। उस निवेशक के पास से कम संख्या में शेअर्स खरीद सकती है या फिर टेन्ड ऑफर द्वारा ओपन बाज़ार में से खरीद सकती है। साथ ही बुक  बिल्डिंग के तरीके से खरीद सकती है। स्टॉक एक्सचेन्ज के पास से या ऑड लॉट से खरीद सकती है।

सेटलमेन्ट सायकल क्या होता है?

इस बाज़ार में जो शेअर्स ट्रेड होते है उनके अकाऊंन्टींग पिरीयड गिनती की जा सकती है। दोनों एनएसई NSE  और बीएसई BSE  रोलींग सेटलमेन्ट का उपयोग करते हैं। हर एक सेटलमेन्ट के आखिर में किसी भी स्टॉक ब्रोकर  को जो देना होता है या बाज़ार में से माल और रूपए लेने होते है उसकी गिनती की जाती है और हर स्टॉक ब्रोकर  को उसके नियमानुसार, समय पर भुगतान करना होता है।

रोलींग सेटलमेन्ट क्या होता है?

रोलींग सेटलमेन्ट द्वारा तय किया जाता है कि किसी भी दिन का ट्रेडिंग भाव और सेटलमेन्ट की समय अवधी  में निश्चित दिनों में सेटल किया जाता है। फिलहाल संपूर्ण समय अवधी यह पाच दिनों का माना जाता है। यह वेईटिंग समय अवधी हर प्रकार के ट्रेड के लिए समान होता है।

लोगों को  स्वयं के स्टॉक ब्रोकर को  शेअर्स और रूपए कब देने चाहिए?

एक विक्रेता के रूप में आपकी सेटलमेन्ट अच्छी तरह से हो इसके लिए आपको कॉन्ट्रैक्ट नोट मिलने के बाद शेअर्स आपके ब्रोकर को ट्रान्सफर करने चाहिए। जो पे-ईन दिन से पहले किसी भी हालत में होना चाहिए। 

फिलहाल आप जिस दिन शेअर्स बेचते है उस दिन के बाद तिसरे दिन पेईन होता है। इसलिए यह हितावह होता है। दूसरे  दिन शेअर्स के लिए सब से अच्छा विकल्प यह ऑटो-पेईन का होता है।  

उसी तरह से खरीदी करने वाले को जब कॉन्टॅक्ट नोट मिलता है तभी रूपए भर देने चाहिए। जो पे-ईन दिन से पहले होना जरूरी है। आपके ब्रोकर के साथ के संबंध के अनुसार इसमें आपको थोड़ी बहुत छूट मिल सकती है।


 

शॉर्ट सेलिंग क्या होता है?

 

किसी व्यक्ति को कुछ शेअर्स में गिरावट होगी ऐसा लगता तो वह  शेअर्स पहले बेचकर और बाज़ार बंद होने से पहले फिर से खरीदने का काम किया तो उसे 'शॉर्ट सेलिंग' कहा जाता है। 

अगर आपके अंदाज के अनुसार शेअर्स का भाव गिरा और उस गिराव पर खरीदी की तो उसका फायदा होता है। उदा. किसी को HDFC BANK में गिरावट होगी ऐसा लगता हो और चाल बाज़ार भाव रू. 1500 होगा तब बेच दीजिए। इसके बाद भाव रू. 1400 होता है तब अच्छी खरीदी करने पर उन्हें रू. 100 का मुनाफा हुआ ऐसा कहा जा सकता है। 

इस तरह से खाते में शेअर्स न होने पर भी पहले बिक्री करके और बाद में

खरीद के जो ट्रेडिंग किया जाता है उसे शॉर्ट सेलिंग कहते है।

नोट (Note)

शॉर्ट सेलिंग ईन्ट्राडे में किया जा सकता है। साथ ही फ्युचर के विषय में फ्युचर की बिक्री करके एक से ज्यादा दिनों तक शॉर्ट सेलिंग की पोजिशन ली  जा सकती है। जब आपको लगता हो कि अब गिरावट रुक  गई है और अब  फिर से  बढ़ोतरी होगी तब ट्रेलिंग स्टॉप के अनुसार पोजिशन एक समान करनी चाहिए। 

             निवेशकों के अधिकार 

कंपनी में से सभी प्रकार की जानकारी हासिल करने का अधिकार।

ट्रांसफर , सब डिविजन इन जैसे कार्य बिना कोई विलंब कंपनी से किए जाते है। 

निवेशकों को अधिकार होता है कि भविष्य में आनेवाले हर ईश्य में वह सबस्क्राईब कर सकते है।

ब्रोकरेज 2.5 से अधिक चार्ज नहीं कि जाती।

निश्चित किए फॉर्मेट में स्टॉक ब्रोकर्स  द्वारा कॉन्ट्रॅक्ट मिलता है जिसमें ब्रोकरेज और भाव अलग अलग दर्शाए जाते है। 

जिन्होने शेअर्स खरीदे हैं वह उनके खाते में ज्यादा से ज्यादा 5 दिनों के अंदर ट्रान्सफर होने चाहिए और जिन्होने शेअर्स बेचे है उनके रूपए भी इसी समय में उन्हे मिलने चाहिए। 

अगर स्टॉक ब्रोकर  के साथ किसी कारण वश तक्रार हुई तो निवेशक

एक्सचेन्ज की आर्बिट्रेज सुविधा का उपयोग कर सकते है।  

ऑक्शन क्या होता है?

जब कोई शेअर धारक शेअर बेचने के बाद समय के अनुसार शेअर्स की डिलिवरी देने में असफल होता है तब ऑक्शन द्वारा बाज़ार उस अंतर घाटे को एकसमान करता है। इसके लिए हर एक निवेशक को ध्यान में रखना जरूरी है कि वह जब शेअर्स बेचते है तब उनके पास उतनी संख्या में  शेअर्स होने चाहिए क्योंकि ऑक्शन के कारण उन्हें बिना मतलब बड़ा नुकसान उठाना पड़ सकता है। अब ऑप्शन जिस भाव से हुआ वह भाव और बिक्री भाव के बिच का फर्क सकारात्मक होगा तो तो होने वाला मुनाफा  इन्वेस्टर प्रोटेक्शन फंड में जमा किया जाता है। इसलिए ऑक्शन से  फायदा कभी भी नहीं होता। पर घाटा मात्र हो सकता है। पहले दिन के बिक्री भाव से अगर ऑक्शन के दिन का भाव याने की पाचवे दिन का  भाव जितना अधिक होता है वह फर्क या 20% के ऊपर हो सकता है । भाव बिक्री भाव के नीचे बंद हुआ तो ऑक्शन में मुनाफा होता है जो ऊपर बताया है उस तरह से इन्वेस्टर प्रोटेक्शन फंड में जमा होता है।




 


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